छाया घाट की रहस्यमयी रात – भाग 4
नेहा की आँखें अब पूरी तरह लाल थीं। उसका चेहरा बदल चुका था — जैसे कोई और उसमें समा गया हो। उसके होंठ धीमे से हिले, लेकिन जो आवाज़ निकली वो नेहा की नहीं थी।
“तुम सबने मुझे फिर से जगा दिया… अब लौटने का रास्ता नहीं बचा…”
श्वेता चीख पड़ी,
“ये नेहा नहीं है! इसमें कोई और है!”
आदित्य ने सिद्धार्थ की ओर देखा,
“हमें इसे घाट से बाहर ले जाना होगा… सूरज निकलने से पहले!”
लेकिन घाट के चारों ओर एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई थी। वे जितना भी कोशिश करते, बाहर की ओर एक कदम नहीं बढ़ा पा रहे थे।
नेहा — या अब जो उसमें था — ज़ोर से हँसने लगी।
“हर सौ साल में एक आत्मा चाहिए इस घाट को ज़िंदा रखने के लिए… और अब तुम सब मेरे हैं…”
सिद्धार्थ ने झट से अपनी जेब से वो पुरानी ताबीज निकाली जो गांव के एक साधु ने उन्हें दिए थी, “सावधानी के लिए”, ऐसा कहकर।
उसने ताबीज नेहा की ओर बढ़ाई, तो अचानक ज़मीन कांपने लगी। नेहा ज़ोर से चिल्लाई,
“हटाओ ये… ये मेरी कैद को तोड़ सकता है!”
उस चिल्लाहट से घाट की सीढ़ियाँ दरकने लगीं। चारों तरफ धुंध गहराने लगी। चारों दोस्त एक-दूसरे का हाथ पकड़े घाट से बाहर भागने की कोशिश करने लगे।
सूरज निकलने में अब सिर्फ़ 40 मिनट बचे थे…
और तभी… नेहा हवा में उठ गई। उसकी आंखों से खून बहने लगा… और वो ज़ोर से बोली:
“अगर मुझे नहीं पाओगे… तो कोई नहीं बचेगा…”
अचानक कुछ ऐसा हुआ… जिसने सबको जड़ कर दिया।
श्वेता भी अब हवा में उठने लगी थी।
क्या ‘छाया’ अब एक आत्मा से संतुष्ट नहीं थी?
क्या उसे दो बलि चाहिए?