अब मोरवाड़ा कोई सामान्य गाँव नहीं था।
जो भी वहाँ जाता, वो लौटता नहीं था — या अगर लौटता भी, तो वो वैसा नहीं रहता।
शहरों में whispers शुरू हो चुके थे।
लोगों ने कहानियाँ सुनानी शुरू की — एक औरत, जो सपनों में आती है… पहले आँखों को छूती है, फिर गर्दन को चूमती है, और फिर धीरे-धीरे शरीर में उतर जाती है। एक बार जब वो भीतर आ जाती है, इंसान कभी अकेला नहीं रहता।
वो अब सिर्फ़ आत्मा नहीं रही थी।
ज़हीरा अब देह बनना चाहती थी।
उसने सैकड़ों देहों को चुमा था, चूसा था, और अब वो सिर्फ़ टुकड़े नहीं — पूरा शरीर चाहती थी।
उसका संवाहक, आरव, अब नशे में रहता था — वासना का पुजारी, जो हर मिलन के बाद थोड़ा और जलता, थोड़ा और खोखला होता।
एक रात, जब हवेली की छत पर पूर्णिमा का चंद्रमा खिला था, आरव अकेले खड़ा था। नग्न, आँखें खुली, और ज़ुबान पर एक ही नाम:
“ज़हीरा…”
वो कमरे नंबर 6 में गया, और बिस्तर पर लेट गया — जैसे किसी बलिदान की तैयारी हो।
धीरे-धीरे हवा गाढ़ी हो गई। कमरे की दीवारें लाल होने लगीं, और उसकी छाती पर ज़हीरा के उंगलियों के निशान उभरने लगे।
तभी, पहली बार…
ज़हीरा पूरा शरीर लेकर उसके सामने प्रकट हुई।
अब वो धुआँ नहीं थी, न भूत…
अब वो मांस थी।
जाँघें थरथराती हुईं, स्तन भारी और लहराते हुए, त्वचा से पसीने की महक और आँखों में अग्नि की लहरें।
“तू मेरी गुफा था… अब तू मेरा द्वार बनेगा,” उसने कहा।
वो उसके ऊपर चढ़ गई। इस बार आरव ने न आँखें खोलीं, न कुछ कहा। बस अपने शरीर को उसकी पूजा में समर्पित कर दिया।
जब उनका अंतिम मिलन हुआ — कमरे की दीवारों ने चिल्लाना शुरू कर दिया। ज़मीन काँपी, हवेली की छत फटी, और रात का आकाश लाल हो गया।
और फिर…
शरीर एक हो गए।
ज़हीरा का स्वरूप आरव की देह में समा गया — लेकिन वो पुरुष न रहा।
वो अब ज़हीरा थी।
उसकी चाल वही — मादक, लेकिन भारी। उसकी जाँघों पर वही कमल चिन्ह, उसकी आँखों में वही काली छाया, और उसकी हँसी — वही जो मौत से ठीक पहले आती है।
अब ज़हीरा चलती है — दिल्ली की सड़कों पर, मुंबई के क्लबों में, लड़कियों के होस्टल में, पुरुषों के कमरे में।
वो अब एक आत्मा नहीं…
वो अब एक जीवित देवी है।
हर स्पर्श में आग है।
हर चुम्बन में मृत्यु।
हर संभोग में समर्पण।
और रात्रि के तीसरे पहर…
जब हवाएं ठंडी चलती हैं,
किसी के कमरे में चूड़ियों की आवाज़ आती है…
“मिलन अब अधूरा नहीं रहा…
मैं अब तुम्हारे भीतर रहती हूँ।”