🩸 भाग 5: गुमशुदा क्रिस्टी
“क्रिस्टी कहाँ है?” माँ चीख पड़ीं। सबने पूरे घर में दौड़-दौड़कर उसे ढूँढना शुरू किया, लेकिन वह कहीं नहीं थी।
नानी धीरे से बुदबुदाईं, “उसने उसे बुलाया है… अपने पास।”
नाना ने पूछा, “किसने?”
नानी की आवाज़ काँप रही थी, “जिसे हमने सालों से दबाकर रखा था… वो अब जाग चुकी है।”
अचानक निचले तहख़ाने की तरफ़ का दरवाज़ा अपने आप खुल गया — एक पुराना, जंग खाया दरवाज़ा जो सालों से बंद था। अंदर से एक सर्द हवा बाहर आई, साथ ही एक तेज़ फफूँदी और मिट्टी की गंध।
मामा ने धीमे स्वर में कहा, “क्रिस्टी वहाँ है… मुझे यकीन है।”
“उस तहख़ाने में तो कोई नहीं जाता… वहाँ तो…” माँ चुप हो गईं।
नाना ने सिर झुकाते हुए कहा, “वहीं वो पहली बार दिखी थी… सालों पहले।”
बिना किसी से कुछ कहे मामा एक जलता हुआ लालटेन लेकर तहख़ाने की ओर बढ़े। सबने पीछे से देखा — हर कदम के साथ अंधेरे की गहराई बढ़ती जा रही थी।
तहख़ाने में उतरते ही, दीवारों पर अजीब-अजीब चित्र दिखाई दिए — काले रंग से बनी रेखाएं, जिनमें एक औरत जैसी आकृति बार-बार दोहराई गई थी।
फिर एक कोने में… एक पुरानी झूलेदार कुर्सी दिखी। उस पर कोई बैठा था।
“क्रिस्टी?” मामा ने धीरे से पुकारा।
कुर्सी पीछे से धीरे-धीरे हिल रही थी।
उन्होंने पास जाकर लालटेन की रोशनी उस पर डाली — और उनके मुँह से चीख निकल गई।
वहाँ क्रिस्टी नहीं थी।
वहाँ बैठी थी वही औरत — सूनी आँखों, लटकते बालों और नीले सड़े चेहरे के साथ।
उसके होंठों से सिर्फ एक नाम निकला — “क्रिस्टी…”
और झूले की परछाई दीवार पर घूमने लगी — लेकिन अब वह परछाई इंसानी नहीं लग रही थी।