🎭 भाग 2: अंधेरा ज़्यादा गहरा है
अगली सुबह सूरज की पहली किरण भी उस जगह नहीं पहुँची जहाँ तीनों दोस्त ठहरे थे। जंगल के बीच एक पगडंडी से वे आगे बढ़े, और तभी पेड़ों के बीच से एक टूटा-फूटा पत्थर का बोर्ड नज़र आया —
“स्वागत है — भैरवपुर में।”
मीरा ने बोर्ड की तरफ देखा, “ये तो जैसे… खुद डर पैदा कर रहा हो।”
आदित्य ने गर्दन झुकाई और बुदबुदाया, “हम पहुँच चुके हैं…”
गाँव में कदम रखते ही एक अजीब सी ठंडी हवा बहने लगी। सारे घर पुराने, काई लगे हुए, खिड़कियाँ टूटीं और दरवाज़े अजीब ढंग से आधे खुले थे — मानो किसी ने जानबूझ कर छोड़ दिए हों।
रघु ने कैमरा ऑन किया, “यहाँ तो मानो वक्त थम गया हो। कोई आवाज़ तक नहीं…”
तभी एक कोने से हल्की सी खड़खड़ाहट आई। तीनों ठिठक गए।
झुरमुटों के बीच से एक बहुत बूढ़ी औरत बाहर आई — बिना पैरों के ज़मीन पर सरकती हुई।
उसकी आँखों में सफ़ेदी, चेहरा झुर्रियों से भरा, और होंठ हिलते हुए बोले,
“तुम लोग… लौट जाओ… जब भैरव जागते हैं… लहू बहता है…”
मीरा पीछे हट गई, “ये… ये क्या कह रही है?”
पर जवाब आने से पहले ही वह औरत मिट्टी में समा गई — जैसे कभी थी ही नहीं।
रघु काँपते स्वर में बोला, “हमें ये जगह छोड़ देनी चाहिए…”
पर आदित्य ने आँखें सख्त कीं, “अब पीछे नहीं हट सकते। मुझे इस गाँव का सच जानना है।”
तभी अचानक दाएँ ओर एक पुरानी हवेली का विशाल दरवाज़ा चर्रर्रर की आवाज़ के साथ खुद-ब-खुद खुल गया।
तीनों उसकी ओर देखने लगे।
दरवाज़े के उस पार… गहरा अंधेरा था… और उसमें से किसी की साँसों की आवाज़ आ रही थी…
(जारी है…)