🎭 भाग 3: हवेली की साँसें
तीनों हवेली के दरवाज़े पर ठिठके खड़े थे। अंदर से आती साँसों की आवाज़ अब और साफ़ हो चुकी थी — लयबद्ध, गहरी और भयानक।
“क्या… कोई ज़िंदा है अंदर?” मीरा ने धीमे स्वर में पूछा।
“या कुछ और…” रघु ने बुदबुदाया।
आदित्य ने साहस करके टॉर्च जलाया और आगे बढ़ा। फर्श पर धूल की मोटी परत, टूटे हुए झूमर के टुकड़े, और दीवारों पर उभरी पुरानी तांत्रिक रेखाएँ। हवेली के अंदर घुप्प अंधेरा था, पर उन साँसों की आवाज़ अब सीढ़ियों से ऊपर आती प्रतीत हो रही थी।
“किसी ने हाल ही में यहाँ कुछ जलाया है…” आदित्य ने एक राख का ढेर दिखाते हुए कहा, “देखो, ये अभी भी गरम है।”
मीरा दीवार पर बनी तस्वीरों को देखने लगी — एक ही व्यक्ति के चित्र — एक बुज़ुर्ग साधु, माथे पर तिलक, पर आँखों में क्रोध।
“ये कौन है?” उसने पूछा।
“शायद… यही भैरव बाबा हैं…” आदित्य ने अनुमान लगाया।
तभी सीढ़ियों के ऊपर से एक धीमी सी गूंजती आवाज़ आई — “तुम्हें… नहीं आना चाहिए था…”
टॉर्च की रोशनी जैसे कांप उठी। आवाज़ के साथ-साथ अब नीचे उतरती एक परछाईं दिखाई दी — लंबी, अजीब सी, मानो इंसानी आकार से कुछ बड़ी।
रघु ने डरते हुए पूछा, “ये कोई इंसान है?”
पर वो परछाईं बिना शरीर के ज़मीन पर चल रही थी… और उसकी साँसें अब सीधे उनके पास आ रही थीं।
“भागो!” मीरा चिल्लाई।
पर उनके पीछे का दरवाज़ा खुद ही बंद हो गया — एक ज़ोरदार धमाके के साथ।
और फिर, हवेली की दीवारें खुद-ब-खुद काँपने लगीं। एक पुराना ग्रामोफोन बज उठा — एक टेढ़े-मेढ़े सुरों वाली तांत्रिक धुन, और उसी के साथ बच्चों की हँसी गूंजने लगी।
“हम अब इस हवेली में फँस चुके हैं…” आदित्य ने काँपते स्वर में कहा।
(जारी है…)