गाँव के बाहर कुछ बदलने लगा था।
मोरवाड़ा अब एक आम जगह नहीं रही। पिछले एक महीने में पाँच लड़के लापता हो चुके थे। दो—अपने घर के आंगन में नंगे मिले। होंठ सूजे हुए, गर्दन पर दांत के निशान, और आँखों में खालीपन।

उनके होठ सिर्फ़ एक शब्द बुदबुदाते रहे —
“ज़हीरा…”
पर अब ज़हीरा सिर्फ़ हवेली में नहीं थी।
अब वो सपनों में उतरने लगी थी।
रात के तीसरे पहर, जब नींद गहरी होती है, वो नंगे पैरों, पायल की धीमी छनक के साथ सपनों में आती — बिस्तर के पास खड़ी, नाभि से नीचे तक सरकती घाघरा, और उसके ऊपर कुछ नहीं।
उसका शरीर अब और भी मोहक था — उसकी त्वचा से धुंआ निकलता था, आँखों से कामुक चिंगारियाँ।
हर सपना, धीरे-धीरे एक वासना का द्वार बन गया।
अब वो सिर्फ़ पुरुषों को नहीं बुलाती थी।
उसने एक स्त्री को चुना — इशरत, एक स्कूल टीचर, जो रातों को अकेले सोती थी। एक रात, इशरत ने देखा — वो खुद अपने बिस्तर पर बंधी हुई थी, और ज़हीरा उसके ऊपर झुकी हुई।
“तुम भी चाहती हो ना… सहलाए जाना… समा जाना…” ज़हीरा ने फुसफुसाया।
उस रात इशरत की चीखें उसकी खुद की हथेलियों में दब गईं, और सुबह उसके होठों पर एक सूखी हँसी थी।
अब ज़हीरा का प्रेम लिंग और शरीर से परे हो गया था — उसकी भूख अब आत्माओं की थी।
हवेली की दीवारों पर हर नए मिलन का एक चिह्न उभरता — किसी स्त्री का लाल दुपट्टा, किसी पुरुष का अधखुला कुर्ता, किसी बच्चे की हँसी का धुंधला प्रतिबिंब।
आरव अब पूरी तरह ज़हीरा का पात्र बन चुका था। उसका शरीर चलता था, लेकिन उसकी आँखों में वही स्त्री बोलती थी।
वो शहर गया — जयपुर, फिर दिल्ली।
और हर शहर में एक रात, एक बिस्तर, एक और शिकार।
आरव अब एक आम पुरुष नहीं था — वो ज़हीरा का मंदिर था, और हर संभोग एक पूजा।
“मैं ज़हीरा हूँ… और हर कामुक साँस में मैं उतरूंगी…”
अब रूम नंबर 6 की जरूरत नहीं रही।
हर बिस्तर… एक कमरा बन गया है।
हर शरीर… उसका दरवाज़ा।
Aage ki kahani Page 4 Par