🩸 भाग 10: मोक्ष या मरण
क्रिस्टी पत्थर के द्वार के सामने खड़ी थी। उसकी आँखें अब पूरी तरह काली थीं, चेहरा निस्तेज और शरीर अकड़ चुका था। उसके होठों से वही पुरानी आत्मा की गूंजती आवाज़ निकली —
“तुम सबने मुझे ज़िंदा जलाया था… अब मैं सबको अपने साथ ले जाऊँगा।”
नानी ने अपना आखिरी ताबीज़ हवा में घुमाया और ज़ोर से मंत्र पढ़ने लगीं। सुरंग के चारों तरफ़ की दीवारें हिलने लगीं। पत्थर का द्वार हल्का-हल्का चमकने लगा, जैसे उसे किसी शक्ति की प्रतीक्षा हो।
“क्रिस्टी! सुनो! तुम हमारी बच्ची हो!” माँ रो पड़ी, “तुम इस आत्मा नहीं हो… लड़ो, बेटा! लड़ो!”
एक पल को क्रिस्टी की आँखों में चमक लौटी — जैसे वह आत्मा से संघर्ष कर रही हो। उसने काँपते हाथ से उस पत्थर की आकृति पर हाथ रखा।
तुरंत ही ज़ोरदार चीख सुनाई दी। आत्मा छटपटाने लगी — “नहीं… नहीं! मुझे यहाँ मत लौटाओ…”
पूरी सुरंग तेज़ रौशनी से भर गई। द्वार धीरे-धीरे बंद होने लगा, और आत्मा के चीखने की आवाज़ उसमें समा गई।
सब कुछ शांत हो गया।
क्रिस्टी बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ी।
नानी थक कर नीचे बैठ गईं, उनकी आँखों में आँसू थे — “शाप टूट गया… भैरवपुर अब आज़ाद है…”
जब वे सब बाहर आए, तो देखा — गाँव का आकाश साफ था। सालों बाद पहली बार सूरज की किरणें उस जगह तक पहुँचीं।
भैरवपुर अब शांत था… लेकिन सुरंग का द्वार वहीं था — अब सील कर दिया गया, परन्तु एक प्रतीक्षा में…
क्योंकि शाप मिटा नहीं है… बस सो गया है।