🩸 भाग 2: खिड़की की परछाई
जिस खिड़की से परछाई झाँक रही थी, वो कमरे के कोने में थी — आधी खुली हुई। बाहर चाँदनी फैली थी, पर उस परछाई का चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा था… बस इतना लग रहा था कि कोई महिला सिर झुकाकर अंदर झाँक रही है।
क्रिस्टी की माँ ने काँपती आवाज़ में पूछा, “माँ… बाहर कोई है क्या?”
नानी तुरंत उठीं और खिड़की की ओर देखा — पर जब तक वो पहुँचीं, परछाई गायब हो चुकी थी।
नाना और चाचा फिर से बाहर निकल कर देखने गए। इस बार उन्होंने बरामदे और घर के पीछे तक जाकर टॉर्च से कोना-कोना देखा… पर कोई नहीं था।
घर लौटते समय नाना ने कहा, “ये जगह अजीब है… सुबह होते ही ऑफ़िस में बात करनी पड़ेगी।”
सबने दोबारा दरवाज़े खिड़कियाँ बंद कीं और सोने की कोशिश की। लेकिन अब नींद कहाँ? हर कोई चुपचाप पड़ा था, आंखें छत पर — और कान हर आहट पर टिके हुए।
करीब एक घंटे बाद, सब शांत था, जब मामा अचानक रोने लगे। माँ ने उन्हें गोद में लिया और चुप कराने की कोशिश की। मामा बस इतना बोले, “वो आंटी मुझे घूर रही थी… काली साड़ी में… उसके बाल बहुत लंबे थे…”
माँ और नानी का दिल बैठ गया।
“कहाँ देखा तुमने?” माँ ने पूछा।
मामा ने उंगली से दरवाज़े की ओर इशारा किया — और वहीं, दरवाज़े की दरार से किसी ने अंदर झाँका था।
अब नानी को यकीन हो गया — कुछ तो था वहाँ।
उन्होंने जोर से मंत्र पढ़ना शुरू किया, जो वो हमेशा किया करती थीं जब कुछ गड़बड़ लगती थी। कमरे में माहौल बदल गया — जैसे कुछ थम गया हो… हवा भारी हो गई थी।
अचानक, बाहर से किसी के ज़ोर से भागने की आवाज़ आई — जैसे कोई औरत नंगे पाँव मिट्टी पर दौड़ रही हो।
और तभी… घर की पिछली दीवार पर खून के छींटों जैसे निशान दिखे — जो पहले नहीं थे।
अब सबको समझ आ गया — ये कोई आम रात नहीं थी।