🩸 भाग 6: तहख़ाने की आँखें
मामा की चीख सुनकर बाकी सब लोग नीचे की ओर भागे, लेकिन जैसे ही उन्होंने तहख़ाने की सीढ़ियाँ उतरनी शुरू कीं, एक ज़ोर की हवा चली और दरवाज़ा उनके पीछे बंद हो गया।
पूरा तहख़ाना अब एक अजीब, स्याह अंधेरे में डूबा था। लालटेन की लौ झिलमिलाने लगी, जैसे कोई उसे बुझाने की कोशिश कर रहा हो।
“क्रिस्टी!!” माँ की आवाज़ कांप रही थी।
फिर अचानक एक कोना तेज़ी से रोशनी में आया — वहाँ फर्श पर उखड़ी हुई मिट्टी के नीचे एक छोटी सी लकड़ी की संदूक जैसी चीज़ रखी थी। नानी ने एक नज़र उस पर डाली और उनकी आँखें फैल गईं।
“ये… ये तो वही है,” नानी ने काँपती आवाज़ में कहा, “जिसमें हमने उसे बंद किया था… सालों पहले…”
माँ ने चौंककर पूछा, “किसे?”
नानी ने गर्दन झुका ली, “वो आत्मा… वो जो तुम्हारे पैदा होने से पहले मुझसे जुड़ गई थी… मैं गर्भवती थी, और… मैंने उसे देखा था… मेरे सपनों में, मेरी छाया में, खिड़कियों के पार… वह हमेशा मेरा पीछा करती थी।”
मामा ने उस संदूक को खोला — अंदर बस राख और कुछ पुराने कपड़ों के चीथड़े थे… लेकिन तभी उनके हाथ में कुछ और आया।
एक छोटी सी गुड़िया।
वो गुड़िया हूबहू क्रिस्टी जैसी दिखती थी।
तभी दीवारें खुद-ब-खुद कांपने लगीं। फर्श की दरारों से खून जैसा गाढ़ा तरल बहने लगा।
“वो हमें देख रही है…” नानी ने बुदबुदाया, “उसकी आँखें… वो कभी बंद नहीं होतीं।”
माँ ने एक बार फिर ज़ोर से पुकारा, “क्रिस्टी!!”
और तभी, ऊपर सीढ़ियों के पास किसी के पैरों की आहट सुनाई दी।
धीरे-धीरे, वो आहट पास आती गई।
सभी ने ऊपर देखा — वहाँ एक परछाई खड़ी थी।
और उसकी आँखें चमक रही थीं।