सेल नंबर 205 – जहां मौत टंगी रहती है
शाम के करीब 5 बजे, केतन को उसके सेल तक ले जाया गया। जेल नंबर 4 वैसे भी एक डार्क, डरावनी जगह थी – एकदम पत्थर की दीवारें, कोई रोशनी नहीं। 1993 में तो और भी बुरा हाल था।
जैसे ही वो सेल में पहुंचा, उसने देखा – सामने एक पत्थर का बिस्तर और उस पर कोई बैठा था।
“नाम क्या है तेरा?” – अंधेरे में से आवाज आई।
“केतन। और आपका?”
“जुनैद।”
जुनैद ने धीमे-धीमे उसे बताया –
“आधी रात में आंखें मत खोलना। जो भी हो, किसी आवाज के पीछे मत जाना। कोई छुए, तो घबराना मत। जो हो रहा है, सह लेना। बस… आंखें मत खोलना।”
केतन थोड़ा घबरा गया, लेकिन कुछ समझ नहीं आया।
रात हुई। खाना खाया। दोनों अपने-अपने बिस्तर पर लेट गए।
पहली रात – कुछ तो गड़बड़ है
आधी रात केतन की नींद खुली। वो पानी पीने उठा। देखा – जुनैद अपने बिस्तर पर नहीं था। डर लगा। सलाखों की तरफ गया तो देखा – दरवाजा खुला था! जेल का दरवाजा!!
उसे सांस लेने में दिक्कत होने लगी। वो भागते हुए बाहर गया और हवलदार को बोला,
“कुछ है अंदर… कोई मुझे मारने वाला है।”
हवलदार ने जाकर देखा – दरवाजा तो लॉक था। और जुनैद वहीं सोया हुआ था।
फिर जुनैद उठ के बोला, “मैं कहां जाऊंगा यार? ताला तो बंद है।”
लेकिन केतन को कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो बोला,
“तू वहां नहीं था। मैं सब देख रहा था। तू ग़ायब था। तूने बोला था आंखें मत खोलना, फिर भी मैंने खोली… शायद मुझसे गड़बड़ हो गई।”