भाग 3: वो कहीं नहीं थी
हम सब सन्न रह गए।
वो गाड़ी जो हम यहीं पेड़ के पास खड़ी करके आए थे… अब वहाँ नहीं थी।
“ये… कैसे हो सकता है?” आदित्य ने लगभग चीखते हुए कहा।
“हम यहीं तो खड़े थे, सब देखा था…!” रोहित हड़बड़ाया।
तान्या की आँखों में आंसू थे। “किसी ने… ले तो नहीं गई?”
“कौन ले जाएगा यहाँ से? ये गाँव तो सुनसान है!” मैंने जवाब दिया, लेकिन मेरे शब्दों में खुद भरोसा नहीं था।
निधि ने काँपते हुए मोबाइल निकाला — लेकिन अब नेटवर्क पूरी तरह गायब था।
“कोई कॉल नहीं जा रहा,” उसने घबराते हुए कहा।
चारों तरफ वही अजीब सा सन्नाटा फैल गया था — न पत्तों की सरसराहट, न पक्षियों की आवाज़… बस एक बोझिल, भारी ख़ामोशी।
“हमें वापस उसी झोंपड़ी की तरफ जाना होगा,” मैंने कहा, “कम से कम छाँव तो मिलेगी रात भर के लिए। सुबह तक किसी तरह रुकते हैं… फिर देखते हैं क्या करना है।”
किसी के पास कोई और रास्ता नहीं था, इसलिए हम सब चुपचाप वापस चल दिए।
झोंपड़ी के पास पहुँचते ही एक अजीब बात दिखी — दरवाज़ा अब पूरा खुला हुआ था। और अंदर से एक धीमी-सी रोशनी झलक रही थी… जैसे किसी ने दिया जलाया हो।
“किसने जलाया ये?” रोहित फुसफुसाया।
“हमने तो नहीं,” आदित्य बोला।
हम धीरे-धीरे अंदर गए।
झोंपड़ी के एक कोने में अब एक मिट्टी का दीया जल रहा था, और पास ही ज़मीन पर कुछ पुरानी तस्वीरें पड़ी थीं — काली-सफ़ेद, धुँधली, धूल में सनी हुईं।
मैंने एक तस्वीर उठाई… और मेरी साँसें थम गईं।
तस्वीर में चार लोग खड़े थे — दो लड़के और दो लड़कियाँ। पीछे वही पीपल का पेड़।
लेकिन बात ये नहीं थी…
वो चारों हम ही थे।
ठीक वैसे ही दिखते हुए… जैसे हम आज दिख रहे थे।
तान्या ने तस्वीर देखी और चीख पड़ी।
“ये… मुमकिन नहीं है!”
और तभी दीया फड़फड़ाया और बुझ गया।
झोंपड़ी फिर से अँधेरे में डूब गई… लेकिन अब हमें लगने लगा था कि हम अकेले नहीं हैं।