भाग 8: जो ज़मीन के नीचे है
तान्या ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी, लेकिन उसके पैर मिट्टी में धँसते जा रहे थे… जैसे किसी अदृश्य ताक़त ने उसे पकड़ रखा हो।
“तान्या!!” मैंने और आदित्य ने मिलकर उसे खींचने की कोशिश की, लेकिन मिट्टी किसी दलदल की तरह उसके शरीर को अंदर निगल रही थी।
“छोड़ो मुझे! कुछ… कुछ पकड़ रहा है!” तान्या की आँखें डर से फैली हुई थीं।
निधि स्तब्ध खड़ी थी, कांपते होठों से मंत्र जैसा कुछ बुदबुदा रही थी।
अचानक मिट्टी से काली, सड़ी हुई उंगलियाँ बाहर निकलीं — मानो कोई शव ज़मीन के नीचे से बाहर आना चाह रहा हो।
“ये… ये इंसान नहीं है!” आदित्य चीखा।
हमने पूरी ताक़त से तान्या को खींचा और किसी तरह उसे बाहर निकाला। उसका पैर लहूलुहान था, जैसे किसी ने उसे नाखूनों से नोचा हो।
तभी… उस पेड़ की जड़ें हिलने लगीं। मिट्टी अपने आप फटने लगी और वहाँ एक चेहरा उभर आया — आधा जला हुआ… आँखों में जलती हुई नफ़रत।
“मुझे ज़िंदा जलाया गया… अब तुम सब मेरी सज़ा भोगोगे…”
उसकी आवाज़ जैसे हवा में गूंज रही थी — न तो वह औरत ज़िंदा थी, न ही पूरी तरह मरी।
हम सब उलटे पाँव वहाँ से भागे। तान्या बेहोश हो चुकी थी और उसके होंठ बड़बड़ा रहे थे — “वो… लौट आई है…”