🩸 भाग 7: परछाई जो मुस्कराई
सीढ़ियों के ऊपर जो परछाई खड़ी थी, वह धीरे-धीरे सामने आई।
सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गई — वह क्रिस्टी ही थी।
लेकिन उसकी चाल में एक अजीब ठहराव था। चेहरा भावहीन, आँखें पूरी तरह काली, जैसे पुतलियाँ ही नहीं थीं।
“क्रिस्टी… बेटा?” माँ ने डरते हुए कहा।
क्रिस्टी कुछ नहीं बोली। बस हल्की सी मुस्कान उसके होंठों पर फैल गई। मगर वह मुस्कान इंसानी नहीं थी — उसमें एक भयानक ठंडक थी, जैसे कोई सदियों पुरानी चीज़ अब उसकी देह में जाग गई हो।
तभी नानी आगे बढ़ीं, “यह मेरी गलती है… मैंने जो किया, उसका दंड अब सबको भुगतना होगा।”
“क्या किया था आपने?” मामा ने पूछा।
नानी ने कांपते हुए कहा, “सालों पहले, जब मैं तुम्हारी माँ को जन्म देने वाली थी, मैंने एक तांत्रिक की मदद ली थी। मुझे हर रात एक औरत की आत्मा दिखाई देती थी… वो कहती थी, ‘मुझे जन्म दो। मुझे इस दुनिया में आने दो।’ डर के मारे, मैंने तांत्रिक से उसका अंत करवाया… लेकिन वो मरी नहीं… वो बस सो गई।”
“और अब वह क्रिस्टी के ज़रिए वापस आ गई है…” माँ ने फुसफुसाया।
तभी क्रिस्टी ने बोलना शुरू किया — लेकिन वह आवाज़ उसकी नहीं थी। वह गूंजती हुई, भारी और बहुत गहरी थी।
“तुम सबने मुझे जलाया… मिट्टी में बंद किया… लेकिन अब मैं पूरी तरह जाग गई हूँ।”
लालटेन की लौ बुझ गई।
पूरा तहख़ाना अंधेरे में डूब गया।
अंधेरे में बस एक ही चीज़ दिखाई दी — दो चमकती आँखें, और एक अजीब सी मुस्कराहट।
और फिर, किसी ने एक झटके से माँ का हाथ पकड़ लिया।